श्रेष्ठ समाधान चमत्कारिक परिणाम

गणेशं द्वारिकाधीशं हरसिद्धिं च भैरवम ।
वन्दे कालीं महाकालं, शिप्रामुज्जयिनीं श्रिये ।।

उज्जैयिनी को सभी तीर्थ से तिल भर बढ़ा बताया गया है । आप किसी भी तीर्थ यात्रा पर जा रहे है । उज्जैयिनी से ही सभी तीर्थ यात्रा का प्रारंभ बताया गया है । यहाँ किये गए अथवा कराये गये पूजा , अनुष्ठान , हवन , यज्ञ जाप इत्यादि का परिणाम शीघ्र एवं श्रेष्ठ मिलता है ।

तन्त्र शब्द के अनेक अर्थ हैं , उन्हीं में एक अर्थ आता है ''शिव - शक्ति की पूजा का विधान करने वाला शास्त्र''। अत: इसी अर्थ को लक्ष्य में रखते हुए भगवान महाकाल की पूजा के विधान को तन्त्र कहा जाता है । वैसे तन्त्र का ही पर्यायवाची शब्द आगम है । जिसका अर्थ आ-ग-म'' इन तीन वर्णों के आधार पर शवि के मुख से आना , गिरिजा - पार्वती के मुख में पहुँचना और वासुदेव -विष्णु के द्वारा अनुमोदित होना प्रतिपादित है । इस प्रकार तन्त्रों के प्रथम तन्त्रों के प्रथम प्रवक्ता भगवान शिव -महाकाल ही हैं ।

उज्जयिनी में साधना करने वाले साधकों में शैव , शाक्त , गाणपत्य , वैष्णव और सौर '' - तथा इन्हीं से सम्बदध भैरव , योगिनी आदि सभी प्रकार के देवी -देवताओं के साधक प्राचीन काल से रहे हैं । जिसके प्रमाण हमें यहाँ के प्रमुख देवस्थान एवं आसितक - समुदाय की प्रवृतित से प्राप्त होते हैं ।
1. शैव - साधना
2. भैरव - साधना
3. शक्ति - साधना :

शक्ति की उपासना तंत्र - शास्त्रों में प्रधानता को प्राप्त है । प्रत्येक साधक अपने इष्टदेव की शक्ति - सामथ्र्य को ही लक्ष्य में रखकर उनकी साधना में प्रवृत्त होता है । शडकराचार्य ने सौन्दर्य - लहरी के प्रथम पध में यह स्पष्ट ही कह दिया है कि शक्ति के बिना शिव भी शव ही हैं । जो साधक केवल शाक्तमंत्र का जप करता है और शैवमंत्र का सहयोजन नहीं करता हैं , उसे वह मंत्र पर्याप्त जप के पष्चात भी सिद्धिप्रद नहीं होता ।

महाकाल - शिव की उपासना के साथ ही भगवती हरसिद्धि की उपासना अवष्य करना चाहिये । शक्ति साधना के प्रमुख स्थल - हरसिद्धि - देवी गढ़कालिका नगरकोट की रानी चामुण्डा माता भूखी माता 64 योगिनी ।

उज्जयिनी में सिहस्थ ( कुभं ) - उज्जयिनी में :- सिंह राशि के गुरू में मेष का सूर्य आने पर उज्जयिनी में कुम्भ -( सिंहस्थ) - पर्व मनाया जाता है। उज्जयिनी का कुम्भ - पर्व सिंह के गुरू में होने से सिंहस्थ के नाम से ही प्रसिद्ध है।

उज्जयिनी में पूर्ण -कुम्भ :- सिंह - राशि से सप्तमराशी कुम्भराशी के कुम्भ में मेषराशि का सूर्य हो तब वैशाख मास में यह योग बनता है। इसी प्रसंग में यहाँ जो मेला लगता है, जन - समूह एकत्र होता है उसका प्रमुख उद्देश्य होता है - इस पर्वकाल में स्नान , दान आदि । विष्णुपुराण में कहा गया है कि - ।। सहरत्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानं शतानि च , वैशाखे नर्मदा कोटि: कुम्भस्नानेन तत्फलम ।।

(कार्तिक में हजार बार स्नान करने से , माघ में सैकडों बार स्नान करने से तथा वैशाख में करोड़ बार नर्मदा में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है , वह फल कुम्भ - पर्व में स्नान करने से प्राप्त होता है। )

शिप्रा स्नान का महत्व-
शिप्रा में वैशाखमास में स्नान करने का और स्नानादि करने का माहात्म्य तो है ही , किन्तु पूरे मास तक यहाँ स्नानादि सम्भव न हो , तो मात्र पाँच दिन ही स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और पूरे मास के स्नान का फल भी मिलता है। शिप्रा नदी तीनों लोकों में दुर्लभ है , प्रेत -मोक्षकारी है और सिंहस्थ स्नान -कर्ताओं के मनोवांछित को पूर्ण करने वाली है। विभिन्न ऋषियों के पूछने पर नारदजी ने भी सिंहस्थपर्व की महिमा विस्तार से बतलार्इ है।